केसा मॉसम आया हे, जिंदा ही मरजाने का|
मिलेना हमसे कोई, खुदसे ही मिल जाने का|
कुछ बोने इंसानो ने, कुदरत से खिलवाड़ किया|
कुदरत ने सहा बहुत, अब पलट के वार किया|
केसा मॉसम आया हे, जिंदा ही मरजाने का|
मिलेना हमसे कोई, खुदसे ही मिल जाने का|
कैसे आज़ाद परिंदो जेसे उड़ते रहते थे,
दूसरे की आज़ादी को नोचते रहते थे|
अब अपनी बरी आई, कितना वो बेचेन हुवा|
केसा मॉसम आया हे, जिंदा ही मरजाने का|
मिलेना हमसे कोई, खुदसे ही मिल जाने का|
नदियाँ अंबर कुछ ना छोड़ा, धरती का सीना निचोड़ा!
ए इन्सा तू कहीं ना ठहरा, डाला हर जगह डेरा|
अब अपनी बरी आई, कितना वो बेचेन हुवा|
केसा मॉसम आया हे, जिंदा ही मरजाने का|
मिलेना हमसे कोई, खुदसे ही मिल जाने का|
–दर्दिल